कहानी संग्रह >> और अंत में ईशु और अंत में ईशुमधु कांकरिया
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यह पुस्तक समाज के मरणासन्न और पुनरुज्जीवित होने की समांतर कथा का वर्णन करती है
Aur Ant Main Ishu a hindi book by Madhu Kankariya -और अंत में ईशु - मधु कांकरिया
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मधु कांकरिया के प्रस्तुत नव्य कथा-संग्रह की कहानियाँ समसामयिक भारतीय जीवन के ऐसे व्यक्तित्व के कथामयी रेखाचित्र हैं, जो समाज के मरणासन्न और पुनरुज्जीवित होने की समांतर कथा कहते हैं। इनमें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के वैसे विरोधाभास और वैपरीत्य के दर्शन-दिग्दर्शन होते हैं, जिनमें उत्पन्न विसंगतियों के ही चलते ‘दीये तले अँधेरे’ वाला मुहावरा प्रामाणिक बना हुआ है।
आज का जागरूक पाठक सर्जनात्मक कथा-साहित्य में वर्ण और नारी आदि के विमर्शों की अनंत बाढ़ की चपेट में हैं और ऐसे ‘हवा महलों’ के संभवतः खिलाफ भी, जो कि उसे ज्ञान के संज्ञान के स्तर पर कहीं शून्य में ले जाकर छोड़ देते हैं। इसके उलट प्रस्तुत कहानियों में जीवन की कालिमा और लालिमा, रति और यति, दीप्ति और दमन एवं प्रचार और संदेश को उनके सही-सही पदासन पर बैठाकर तोला, खोला और परखा गया है। अभिव्यक्ति के स्तर पर विचारों का कोरा रुखापन तारी न रहे, इसलिए लेखिका ने प्रकृति और मनोभावों की शब्दाकृतियों को भी लुभावने ढंग और दृश्यांकन से इन कहानियों में पिरोया है। धर्मांतरण का विषय हो या कैरियर की सफलता के नाम पर पैसा कमाने की ‘मशीन’ बनाते बच्चों के जीवन की प्रयोजनहीनता ..या फिर स्त्री के नए अवतार में उसकी लक्ष्मी-भाव और उर्वशीय वांछनाओं की दोहरी पौरुषिक लोलुपताएँ-कथाकार की भाषागत जुलारीगीरी एकदम टिच्च मिलती है। इसे इन कहानियों का महायोग भी कहा जा सकता है।
सृजन को जो कथाकार अपने कार्यस्थल के रुप में कायांतरित कर देता है, वह अपने शीर्ष की ओर जा रहा सर्जक होता है। विश्वास है कि पाठक को भी यह कृति पढ़कर वैसा ही मालूम होगा। ऐसा अनुभव इसलिए अर्जित हो सका है, क्योंकि ये कहानियों जीवन के अभिनंदन पत्र नहीं , बल्कि मानवीय अपमान और सम्मान की श्री श्री 1008 भी हैं।
आज का जागरूक पाठक सर्जनात्मक कथा-साहित्य में वर्ण और नारी आदि के विमर्शों की अनंत बाढ़ की चपेट में हैं और ऐसे ‘हवा महलों’ के संभवतः खिलाफ भी, जो कि उसे ज्ञान के संज्ञान के स्तर पर कहीं शून्य में ले जाकर छोड़ देते हैं। इसके उलट प्रस्तुत कहानियों में जीवन की कालिमा और लालिमा, रति और यति, दीप्ति और दमन एवं प्रचार और संदेश को उनके सही-सही पदासन पर बैठाकर तोला, खोला और परखा गया है। अभिव्यक्ति के स्तर पर विचारों का कोरा रुखापन तारी न रहे, इसलिए लेखिका ने प्रकृति और मनोभावों की शब्दाकृतियों को भी लुभावने ढंग और दृश्यांकन से इन कहानियों में पिरोया है। धर्मांतरण का विषय हो या कैरियर की सफलता के नाम पर पैसा कमाने की ‘मशीन’ बनाते बच्चों के जीवन की प्रयोजनहीनता ..या फिर स्त्री के नए अवतार में उसकी लक्ष्मी-भाव और उर्वशीय वांछनाओं की दोहरी पौरुषिक लोलुपताएँ-कथाकार की भाषागत जुलारीगीरी एकदम टिच्च मिलती है। इसे इन कहानियों का महायोग भी कहा जा सकता है।
सृजन को जो कथाकार अपने कार्यस्थल के रुप में कायांतरित कर देता है, वह अपने शीर्ष की ओर जा रहा सर्जक होता है। विश्वास है कि पाठक को भी यह कृति पढ़कर वैसा ही मालूम होगा। ऐसा अनुभव इसलिए अर्जित हो सका है, क्योंकि ये कहानियों जीवन के अभिनंदन पत्र नहीं , बल्कि मानवीय अपमान और सम्मान की श्री श्री 1008 भी हैं।
मधु कांकरिया के प्रस्तुत नव्य कथा-संग्रह की कहानियाँ समसामयिक भारतीय जीवन के ऐसे व्यक्तित्व के कथामयी रेखाचित्र हैं, जो समाज के मरणासन्न और पुनरुज्जीवित होने की समांतर कथा कहते हैं। इनमें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के वैसे विरोधाभास और वैपरीत्य के दर्शन-दिग्दर्शन होते हैं, जिनसे उत्पन्न विसंगतियों के ही चलते ‘दीये तले अँधेरे’ वाला मुहावरा प्रामाणिक बना हुआ है।
आज का जागरूक पाठक सर्जनात्मक कथा-साहित्य में वर्ण और नारी आदि के विमर्शों की अनंत बाढ़ की चपेट में हैं और ऐसे ‘हवा महलों’ के संभवतः खिलाफ भी, जो कि उसे ज्ञान के संज्ञान के स्तर पर कहीं शून्य में ले जाकर छोड देते हैं। इसके उलट प्रस्तुत कहानियों में जीवन की कालिमा और लालिमा, रति और यति, दीप्ति और दमन एवं प्रचार और संदेश को उनके सही-सही पदासन पर बैठाकर तोला, खोला और परखा गया है। अभिव्यक्ति के स्तर पर विचारों का कोरा रुखापन तारी न रहे, इसलिए लेखिका ने प्रकृति और मनोभावों की शब्दाकृतियों को भी लुभावने ढंग और दृश्यांकन से इन कहानियों में पिरोया है। धर्मांतरण का विषय हो या कैरियर की सफलता के नाम पर पैसा कमाने की ‘मशीन’ बनाते बच्चों के जीवन की प्रयोजनहीनता ..या फिर स्त्री के नए अवतार में उसकी लक्ष्मी-भाव और उर्वशीय वांछनाओं की दोहरी पौरुषिक लोलुपताएँ-कथाकार की भाषागत जुलाहागीरी एकदम टिच्च मिलती है। इसे इन कहानियों का महायोग भी कहा जा सकता है। सृजन को जो कथाकार अपने कार्यस्थल के रुप में कायांतरित कर देता है, वह अपने शीर्ष की ओर जा रहा सर्जक होता है। विश्वास है कि पाठक को भी यह कृति पढ़कर वैसा ही महसूस होगा। ऐसा अनुभव इसलिए अर्जित हो सका है, क्योंकि ये कहानियाँ जीवन के अभिनंदन पत्र नहीं , बल्कि मानवीय अपमान और सम्मान की श्री श्री 1008 भी हैं।
विश्वजीत ने मुझे लिखा थाः
मैडम इस पत्र के साथ एक छोटा-सा पैंफ्लेटनुमा निमंत्रण कार्ड भी भेज रहा हूँ। जानता हूँ, इसे देखकर आपको दुख होगा... मेरा बपतिस्मा-जी मैडम ! आगामी रविवार, 20 फरवरी को मैं अपना बपतिस्मा करवाने जा रहा हूँ। पवित्र जल में तीन डुबकी और मैं विश्वजीत चक्रवर्ती, एक साइंस ग्रेजुएट, खाँटी वैष्णव परिवार का ब्राह्मण...अपने पूरे होश-हवास के साथ ईसाई बन जाउँगा।
जानता हूँ-आपकी भौंहें चढ़ गई होंगी...मुँह खुला का खुला रह गया होगा...। धीरे से कहा होगा- अविश्वसनीय !
पर यही यथार्थ है। मैं यह ईसाई धर्म इसलिए नहीं स्वीकार कर रहा हूँ कि मैं एकाएक किसी बड़ी रोशनी में आ गया हूँ या ईशु के टेन कमांडमेंट्स में मेरी आस्था एकाएक जाग उठी है या ज्ञान का कोई बोधिसत्व मेरे हाथ लग गया है। मैडम, यह सब मैं कृतज्ञतावश कर रहा हूँ... उन लोगों के प्रति जिन्होंने तब मुझे सहारा दिया था, जब मेरे जीवन के सूर्य को पूरी तरह ग्रहण लग चुका था।
याद आ रहा है...कभी ड्रग के अँधेरे में डूबे मेरे वजूद को देख आपने मुझसे कहा था...जीने के लिए ड्रग के सहारे की आवश्यकता उन्हें पड़ती है जिन्हें जीवन से प्यार नहीं होता। अपने भीतर की लौ को किसी प्रकार जिलाए रखो...देखोगे कि जीवन अपने आप में कितना सुंदर है, कि जीवन का गौरव अभी भी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।
मैडम आप की बातें सुंदर हैं...अति सुंदर...पर वें उन्हीं जिंन्दगियों पर लागू होती हैं जिनकी जमीन में फिर भी कुछ नमी, कुछ रंग बचा रहता है, पर जहाँ रेत ही रेत हो...ऐसे रीते, रेतीले, रंगहीन जीवन की मार खा-खाकर या तो खत्म हो जाते हैं या कर दिए जाते हैं। ताज्जुब है, आप रेंगती, घिसटती जिंदगियों पर लिखने का दावा करती हैं...मानव की त्रासदी, उसके संघर्ष, स्वप्न और मुक्ति की बात करती हैं... फिर भी आपको हैरत हुई- लोहरदगा के उस आदिवासी परिवार से मिलकर जो एक क्रोसीन की टेबलेट के प्रतिदान में ईसाई बन गया था। जीवन की भयावहता और उसका चरम दारूण और क्या होता हैं मैडम ?...ऐसी ही काली परिस्थितियों में अँखुआते हैं धर्मांतरण के बीज !
कभी गई हैं आप झुग्गी झोंपड़ियों और बस्तियों के बीच ? हावड़ा-सियालदह के प्लेटफॉर्मों पर ? फ्लाई ओवर के नीचे बने स्लम के सीलन-भरे अँधेरे तहखानों में ? कभी चलिए मेरे साथ, मैं दिखाऊँगा आपको-रिसती- रेंगती अपाहिज जिंदगियाँ...बुढ़पे को मात करती जवानियाँ...माँ के गर्भ से पैदा होता बुढ़ापा। इन्हीं जगहों पर ढेरों-ढेर ऐसे बच्चे हैं, जिनका बचपना झुलसा हुआ है। जो नशे के, कुटेवों के और मस्तानों की वासनाओं के शिकार हैं। जिन हाथों में किताब होनी चाहिए उन हाथों में भारी-भरकम झाड़ू हैं। मैंने देखा है मैडम...बड़ी-बड़ी भट्ठियों में झुलसते सुकोमल चेहरे... टाट के पर्दों के पीछे नशेबाजों को सामान सर्व करते नन्हे हाथ। ‘माल’ सर्व करते-करते वे स्वयं भी उसका शिकार हो जाते हैं। ईट गारा ढोती कोमल देह। ताज्जुब है मैडम, यह मंदिरो और नदियों का देश है या बाल- श्रमिकों का ?
यदि जीवन, मनुष्य की त्रासदी और उसकी नियति से जरा भी लगाव है आपको, तो आप उन जिन्दगियों की कहानियाँ लिखिए, जिनकी कभी कोई कहानी नहीं बनती। पर इसके लिए आपको इस त्रस्त, पीड़ित और भटकती हुई मानवता के बीच कुछ दिन गुजारने होंगे। सिर्फ ईश्वर में लीन रहने या सिर्फ एक कमजोर एवं दुखी आत्मा की तरह धर्मांतरण पर दुःख करने या चिंता करने से बात नहीं बनती।
हमारा एक प्रोजेक्ट है- चिल्ड्रेन ऐट रिस्क। उस प्रोजेक्ट के अंतर्गत हमने ऐसे ही 250 बीमार, अमानवीय श्रम के शिकार, नशा एवं कुटेव के शिकार 300 बच्चों को फुटपाथों एवं बस्तियों से उठाया है। धीरे-धीरे अब ये बच्चे स्वस्थ हवा में साँस ले रहे हैं। इन्हें घर की आत्मीय उष्णता से परिचित कराने के लिए हमने इनके लिए मिड-होम की भी व्यवस्था की है। इसके अतिरिक्त हार्डकोर ड्रग एडिक्ट के लिए डि-टॉक्सीफिकेशन सेंटर भी है। इसके साथ ही स्पीरिचुएल ट्रेनिंग कोर्स एवं वोकेशनल ट्रेनिंग कोर्स भी लिए जा रहे हैं, जिससे मन की ताकत पाकर ये फिर नशे की ओर न मुड़ें (मेरा उद्धार इसी डि-टॉक्सीफिकेशन सेंटर में हुआ था)।
मैडम, आप इस प्रोजेक्ट के साथ विशेषकर ‘चिल्ड्रेन ऐट रिस्क’ के साथ अवश्य जुड़ें, तब समझेंगी आप कि जीवन धर्म से कितना भारी पड़ता है। जिस दिन जीवन के तलहट पर खड़ी लुंज-पुंज जिंदगियों को जीवन का गरल पीते अपनी आँखों से देख लेंगीं, शर्तिया धर्म का सोमरस आपको बहका नहीं पाएगा।
एक और अनुरोध... इसी पत्र के साथ एक लिफाफा अपने बड़े भाई के नाम भेज रहा हूँ...कृपया यह उन तक पहुँचा दें।
दूसरी दोपहर।
लिफाफे के साथ मैं निकल पड़ी उसके बड़े भाई के यहाँ। रास्ता आगे बढ़ रहा था, पर मैं पीछे जा रही थी। साथ में उँगली पकड़े-पकड़े कुछ बीते सत्य- मेरे सूने मन को ठकठकाते।
बादलों से घिरी वह एक उदास शाम थी, जब पहली दफा मैं उसके घर के लिए निकली थी। अँधेरों से घिरी, सँकरी-सी, खटर-पटर वाली गली के अंतिम नुक्कड़ पर था उसका मकान। खोजने में थोड़ा वक्त लगा। पाड़े के एक चाय वाले के यहाँ कई बेरोजगार युवा चाय की चुस्कियों के बीच करिश्मा कपूर की बिल्लौरी आँखों और उसके लेटेस्ट प्रेम-प्रसंग पर विमर्श कर रहे थे। उन्हीं में से किसी एक से पूछा मैंने- ‘‘विश्वजीत कोथाय थाके, बोलते पारो ?’’
(विश्वजीत कहाँ रहता है, बता सकते हो ? ‘‘कौन...? विशु दा...एक लड़के ने कहा...और तभी उसकी आवाज को काटती दूसरी तेज आवाज उभरी- ‘‘ सेई पत्ताखोर ?’’ (बंगाल में हेरोइन या ब्राउन शुगर की एक डोज को एक पत्ता और उसके सेवन करने वाले को पत्ताखोर कहते हैं) और उसने भद्दी हँसी के साथ उँगली दिखा दी।
‘पत्ताखोर’ शब्द खंजर की तरह सीने में गड़ा। तो अब यही पहचान रह गई है उसकी ? दृश्य सत्य ही सत्य है, नेपथ्य के यथार्थ को जानने में किसी की दिलचस्पी नहीं ? बरहाल...।
पुराने जमाने की जंजीर की साँकल वाला एकमंजिला उसका मकान। भुतहा सा। कंडी खड़खड़ाई तो सामने उसकी माँ। ठठरी-सी देह। झुकी कमर। जैसे झुर्रियों का जंजाल और थकान भरी मोतियाबिन्दी आँखे।
मुझे देखते ही सिकुड़ गईं वे आँखें।
‘‘ विश्वजीत है ? उन्हीं से मिलना है।
चेहरे की खाल काँपी उनकी। खुले-अधखुले होंठ कँपकँपाए। उँगली दिखा दी उन्होंने।
इधर-उधर नजर घुमाई...एक असीम और कालातीत सन्नाटा पसरा हुआ। जिंदगी की ऊब और अकेलेपन की ठिठुरन से जकड़ी वह आत्मा कुछ कदम मेरे साथ चली, फिर जाने क्या सोच बुदबुदाती मुड़ गई।
सामने एक ही कमरा। उढ़काया हुआ। हलकी- सी दस्तक, एक बार...दो ....तीन बार...कोई सुनवाई नहीं। आखिर...गली हुई लकड़ी वाले उस दरवाजे की फाँक से मुंड़ी अंदर घुसाई-उखड़ी पपड़ियों वाली सीलन- भरी दीवारें चहूँ ओर। सब कुछ रहस्यमय-सा। कहीं गलत कमरा तो नहीं दिखा दिया उस वृद्धा ने-वृद्धावस्था में मस्तिष्क यूँ भी आउट ऑफ ऑर्डर हो जाता है- सोचती हुई फिर वापस मुड़ी, पर आसपास सब वीरान। न कोई इंसान, न इंसानी आवाज। थोड़ी हिम्मत बटोरी और आखिर में दो कदम अंदर घुसी कि एक जबर्दस्त दृश्याघात। ठिठके-ठहरे उस परिवेश में बहता हुआ समय जैसे एक कोने में ठहर गया था। सारी खिड़कियाँ बंद। एक कोने में सिर पर चादर डाले, सिर झुकाए वह बैठा था। अडोल। निस्पंद। बाएँ हाथ में, पन्नी, दाँए हाथ में जलती मोमबत्ती- उस पन्नी को नीचे से हलका-हलका ताप देती हुई। पन्नी पर रखा चूर्ण घी की तरह पिघला... फिर धुँआ। उसी धुएँ को स्ट्रा की सहायता से समाधिस्थ-सा टान रहा था वह, जैसे जीवन की साँसें टान रहा हो।
भय, उत्तेजना, रोमांच और विस्मय की मिली-जुली अनुभूति से मैं जैसे काठ हो गई थी। एक मिनट के लिए वापस लौटना चाहा तो कदम उसके गुरुत्वाकर्षण जोन की ओर चुम्बक की तरह खिंचने लगे। मेरी सारी इंद्रियाँ अकस्मात जाग गई थीं। कनपटी तड़कने लगी। यह तो सुना था विशु ड्रग के अँधेरे में घिर गया है, पर इस प्रकार ली जाती है हेरोइन ? घर पर ही ? माँ की उपस्थिति में ही ? मैं तो सोचती थी कि होम्योपैथ की पुड़िया की तरह फाँक लिया जाता होगा...पर इस प्रकार पन्नी, मोमबत्ती, चूर्ण और स्ट्रा का यह कॉम्बीनेशन ? यह तामझाम ? बाप रे !
वे क्षण जैसे शाश्वत क्षण बन गए थे। सब कुछ थिर था उन क्षणों में...हवा का दबाव...पृथ्वी का घूमना...परिंदों का उड़ना। मेरी उपस्थिति से बेखबर उन क्षणों में उसकी सारी चेतना उस धुँए पर केंद्रित थी। धीरे-धीरे वह धुँआ भी शेष हुआ। उसने सिर उठाया। एक तरफ से अधजली और कड़ी पड़ी उस पन्नी को उसने जमीन पर रखा। मोमबत्ती को यूँ ही जलता छोड़ नशे की तंद्रिल खुमारी में बहते हुए घुटनों पर सिर रख आँखें मूँद लीं और खुद को हवाले कर दिया किसी अनाम हाई पॉवर के हाथों।
‘‘अरे...अरे ....यह क्या ? मोमबत्ती से चादर में आग लग सकती है...’’मैं चीख पड़ी। चेतन-अचेतन के संधि-बिंदु पर खड़ा ढहता-बहता वह थोड़ा चौंका, ‘‘कौन ?’’ नशे की खुमारी थोड़ी झड़ी। अधमुँदी आँखों के कपाट एक बारगी खुल गए। रक्ताभ आँखों में पहचान की झिलमिल उभरी। खुमारी की जगह अब वहाँ सकपकाहट और आत्मग्लानि के मिले-जुले भाव थे। उसने हाथ जोड़े और हलके से हँसा...एक उदास और दरकती हँसी- ‘‘तो आपने भी मुझे आज देख ही लिया अपने वास्तविक स्वरूप में ! अच्छा ही किया। जीवन का यह छुपा आख्यान भी खुला...।’’
‘नहीं विशु, मैंने अच्छा नहीं किया आज यहाँ आकर। ओफ ! कितना यातनापूर्ण है एक सत्य पर आरोहण करना...’ मैंने उसे कहना चाहा पर मूक रही।
क्षणांश के लिए मन मीलो पीछे दौड़ गया। 1970-72 का वह उफनता नक्सलवादी आंदोलन। किसी जोशीले समुद्र की तरह ठाठें मारता...हुंकारता विशु...। हार्डकोर नक्सलवादी...पुलिस का प्राइज कैच। शिकारी कुत्तों की तरह जिसके पीछे पड़ गई थी पुलिस-पुलिस से बचते-बचाते एक रात हमारे यहाँ ठहरा था वह। आँखों में झिलमिलाता एक स्वप्न- आम आदमी की तरह मुक्ति का। मन में दृढ़ संकल्प। हृदय में सिंह-साहस।- ‘मैडम, इस उठते ज्वार को शायद ही कोई रोक पाएगा। सदियों से दबा-पिसा-कुचला, सत्तू खाने वाला यह सर्वहारा वर्ग अब हुंकार भरने लगा है। उन्हें एक आदमी की गरिमा अब देनी ही होगी। आम आदमी की मुक्ति का हमारा यह क्रांति-स्वप्न...
मैडम, यही मेरा जीवन-सत्य है...इसी के लिए अपने को बूँद-बूँद निःशेषकर देना चाहता हूँ।’
बाद में सुना, वह सीमा के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया था। जेल के भी भीतर बनी जेल में रखा गया था उसे...निपट अकेला और थर्ड डिग्री टॉर्चर...फिर भी पुलिस कुछ भी नहीं उगलवा पाई थी उससे। करीब पाँच साल बाद 1977 में जब जनता पार्टी ने सत्ता में आने के बाद सभी नक्सलवादियों को छोड़ दिया था...तभी छूट पाया था वह।
ताज्जुब ! काँटो के बीच खिला फूल सेज पर आते ही मुरझा गया था। अमानवीय पुलिस यातनाओं और प्राणों को सुखा डालने वाले सन्नाटे और दहशत-भरी परिस्थितियों में भी जिसका मानसिक संतुलन नहीं गड़बड़ाया, जेल से बाहर आते ही गड़बड़ा गया था वह। बदली हुई फिजा, हवा और बदला हुआ मौसम उसे तोड़ने लगे थे। एक स्वप्न की ताजा मृत्यु से भी ज्यादा जानलेवा यह अहसास था कि वह फिजा, वह हवा ही बदल गई थी, जहाँ स्वप्नों की जमीन बनती थी, जहाँ क्रांति के फूल फलते-फूलते थे, जहाँ बसकर आँखें स्वप्न देखना सीखती थीं। आधे से अधिक जाँबाज कॉमरेड मारे जा चुके थे।
जो जीवित रह गए थे उनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ी जा चुकी थी। और जो आने वाली पीढ़ी थी उसका क्रांति के नाम से ही मोहभंग हो चुका था। वे फिर अपने सूखे अध्ययन की दुनिया में लौट चुके थे।...पर विश्वजीत ? वह ऐसा नहीं कर सका। मानव मुक्ति के महान् स्वप्नों के एवरेस्टपर चढ़ जाने के बाद यह लूलों की सी वापसी ? उसका संतुलन इस कदर गड़बड़ाया किसी प्रति-सृष्टि को रचने का स्वप्न लिए वह चला गया-हेरोइन के अँधेरों के प्रति-संसार में...एक नई फैंटेसी की दुनिया में...जहाँ वह वह था जो वह नहीं था। और इस नामुमकिन- लगते सत्य का ...एक सीमांत से दूसरे सीमांत पर लुढ़कते जीवन का यह चश्मदीद गवाह भी मुझे ही बनना था।
‘‘कहाँ खो गई मैडम ?’’ अब वह खड़ा हो गया था। दीवार पर ठुकी कील पर उसने चद्दर टाँग दी थी। कोने पर रखे स्टूल को खींचकर मुझे उस पर बैठने का आग्रह करने लगा था।
‘‘तुम्हे नशेबाज के रूप में देखूँगी, कभी सोचा भी न था।...’’बोलते-बोलते कंठ अवरूद्ध हो गया था मेरा...एक संभावनापूर्ण जीवन का इस प्रकार असमय अवसान !
वह हँसा, एक दरकती हँसी। उदासी का अक्स भी उभरा। ‘‘मैडम, आप मेरे एडिक्शन पर दुखी हैं, पर मुझे तो इस दुनिया में सभी एडिक्ट लगते है। किसी को सत्ता का एडिक्शन ! है, किसी को धर्म का तो किसी को श्रेष्ठता का। देखा नहीं आपने, इंदिरा मैडम का सत्ता-एडिक्शन ! सह नहीं पाईं विद्ड्राअल और लगा दी एमरजेंसी।’’
‘‘ विद्ड्राअल ! यह क्या ?’’
मैडम, धीरे-धीरे आप नशे की इस दुनिया की सारी शब्दावली समझ जाएँगी। विद्ड्राअल का मतलब है, जब नशेबा़ज की डोज का समय हो जाए और उसे डोज नहीं मिले ....ओफ ! बड़ा भयंकर होता है हेरोइन का विद्ड्राअल...बदन ऐंठने लगता है। जोड़-जोड़ चटकने लगता है, जुबान लॉक हो जाती है...ओफ ! मैडम, एक बार भुगती थी मैंने भी विदड्राअल की यातना... अरे, पैडलर धोखा दे गया... नकली माल थमा गया। जब नीचे से ताप दिया तो ‘माल’ पिघला ही नहीं...धूपकाठी का पाउडर था। मैडम, विद्ड्राअल में नशेबाज कुछ भी कर सकता है- चोरी, डकैती, खून तक। वह बच्चे के दूध का डिब्बा तक बेच सकता है, बीवी का जेवर बेच सकता है। साक्षात श्रीदेवी भी सामने आ जाए ना तो वह कहेगा... नो, पहले पत्ता।’’
कुछ खामोश पल... थोड़ा रुककर वह कहने लगा, ‘‘लेकिन मैं कुछ दूसरी ही बात कर रहा था... हाँ, याद आया। हाँ, तो मैडम, मैं कह रहा था कि सभ्यता और इतिहास की अधिकांश लड़ाइयों के पीछे यही नशा रहा है- संसार की नंबर वन ताकत बनने का नशा। मैडम, एक नशेबाज के नशे का फिर भी डि-टॉक्सीफिकेशन (नशा-मुक्ति के लिए शारीरिक स्तर पर दी जानेवाली चिकित्सा) करवाया जा सकता है...पर सत्ता, धर्म और श्रेष्ठता- दंभ का नशा जो इनकी आत्मा से चिपका होता है, उसका तो कोई डि-टॉक्सीफिकेशन भी नहीं। ’’
उससे उलझना फिजूल था। इस कारण संवाद की आरोही उठान को व्यक्तिगत ढलान पर लाती हुई मैं फिर बोल पड़ी, ‘‘तो फिर तुम क्यों नहीं करवा लेते अपना डि-टॉक्सीफिकेशन... मुझे बताओ, क्या करना होगा ? मैं करवाउँगी तुम्हरा ट्रीटमेंट !’’
अनजाने ही मैंने उसकी दुखती रग पर उँगली धर दी थी। वह चुप हो गया था। मैंने फिर झंझोड़ा उसे, ‘‘बताओ, किस नर्सिग होम में होता है डी-टॉक्सीफिकेशन ? ’’
वह जैसे अपने भीतर से बाहर आया। वेदना का समुद्र उसकी आँखों में लहराया। आर्द्र आँखों से मुझे देखते हुए वह बुदबुदाया, ‘‘ नहीं मैडम... मुझे ठीक नहीं होना।’’ पानी-भरे बादलों-सी भारी-भारी आवाज। जैसे साक्षात् वेदना।
‘‘ क्या ? क्या कह रहे हो तुम ? क्यों ठीक नहीं होना चाहते तुम ?’’
‘‘ मैडम, यदि मैं ठीक हो गया तो यह व्यर्थ- सा लगता खाली जीवन मुझसे जिया नहीं जाएगा...वे स्वप्न...वे संकल्प...दुनिया को फिर से बनाने के वे महान विचार। मैडम मान लीजिए कि मैं ठीक हो गया तो क्या वह समय...वह महान समय मुझे मिल जाएगा...जब देश का सर्वश्रेष्ठ युवा वर्ग सत्य और न्याय के लिए, आदमी की गरिमा की खातिर पुलिस की गोलियों के सामने सीना तान कर खड़ा हो गया था। मैडम, आजाद भारत में भगत सिंह के बाद वह पहली पीढ़ी थी, जिसने अँधेरों की दुनिया को रोशन करने के लिए कफन सिर से बाँधे थे... मैडम, 1969-70 का वह महान इंकलाबी समय, जब भारत ही नहीं यूरोप, अमेरिका और फ्रांस के छात्र एवं युवा वर्ग ने भी अन्याय, राज्य-व्यवस्था एवं तानाशाही राज्यतन्त्र के विरूद्ध आवाज उठाई थी।
मैडम, आज तो लगता है, युवा वर्ग विद्रोह की आवाज ही भूल गया है, विरोध की कोई सुगबुगाहट तक नहीं। उसके स्वप्न...जीने के अर्थ....आयाम सब कुछ सिकुड़ गए हैं। ओह, वह वातावरण...वह महान् और पवित्र समय ... वह युवा वर्ग...सब शेष हो गया मैडम...कुछ नहीं बचा...कुछ भी नहीं। सब उम्मीदें, आशाएँ बाँझ हो गई हैं। ’’- उसकी आँखों में धुआँ था, धुआँ ही धुआँ।
घुटनों के बीच मुँह छुपा लिया था उसने। धीरे-धीरे सुबक रहा था। उसकी देह काँप रही थी। उस उदास शाम, संसार के सबसे बड़े दुख को जन्म लेते देखा मैंने और अपने मरे हुए मन के साथ लौट आई।
उसके साढ़े तीन महीने बाद ही फिर हुई दूसरी मुलाकात। घर से फील्ड वर्क के लिए निकल रही थी कि तभी फोन की घंटी बजी। एकदम गिरती–गिरती लड़खड़ाती डरी हुई आवाज, ‘‘मैडम विदड्राअल में हूँ... थोड़े पैसे चाहिए...पत्ता खरीदना है... मैडम प्लीज, नहीं लिया तो विद्ड्राअल में ही मर जाऊँगा।’’
फोन ने नैतिक अंतर्द्वंद्व और दुविधा में डाल दिया। क्या करूँ ? दूँ...न दूँ ? यदि सचमुच ही मर गया तो ? सोच रही थी कि वह फिर गिड़गिड़ाया, ‘‘मैडम कुछ बोलिए...मेरी कुछ किताबें हैं ... उन्हें ले लीजिए...आप किताबें संग्रह करती हैं।’’ लगा, जैसे उसकी आत्मा का सत्व पूरी तरह निचुड़ गया है। लगा, वह नहीं मेरी इमारत ही ढह रही है। आँत में जैसे गोला अटक गया था। किसी प्रकार थूक निगलते हुए कहा, ‘‘ठीक है... आ रही हूँ। अभी तुरंत।’’
बस पकड़कर सीधी उसके यहाँ पहुँची तो फिर अवाक्। अलीबाबा की गुफा के खुले दरवाजों की तरह उस घर के सारे कपाट खुले थे... बाहर की साँकल से लेकर निजी कमरे के कपाट तक। डर और आशंका के साथ लगभग उड़ती हुई उसके कमरे तक पहुँची तो मन पर कफन ही पड़ गया था। कमरे के कोने में किसी डरे हुए जानवर की तरह, भयभीत कछुए की तरह अपने सारे अंगों को अपने भीतर समेटे वह बैठा था। चेहरे पर जंगली घास की तरह बढ़ी दाढ़ी देखते ही उसकी बुझी आँखें चिनगारी-सी दहकीं। दूसरे ही क्षण वह चिनगारी बुझ गई और आँखों के कोटर में अजीब-सी दीनता और याचना भर गई, ‘‘मैडम बीस रुपय दे दीजिए... बस, बीस रुपए। आपको लौटा दूँगा।’’
उसके दाँत किटकिटाने लगे थे। मुँह से आती दुर्गंध से माथा भन्ना रहा था मेरा। हठात् मुँह से निकल पड़ा, ‘‘तुमने अभी तक ब्रश नहीं किया ?...’’
पर बोलने के साथ ही मैं सहम गई थी। वह ताड़नीय नहीं, दयनीय था। उसका चेहरा काला पड़ गया था। कीचड़ और नींद-भरी आँखें और झुक गई थीं। भय, आत्मग्लानि और अपमान की लहरों ने जैसे उसे हीनता के सबसे आखिरी पायदान पर ला पटका था। गर्दन की जकड़न को दूर करने के लिए उसने दाएँ-बाएँ गर्दन घुमाई, उँगलियाँ चटकाईं, अपने सूखे पपड़ाए होंठों पर जीभ फिराई और थोड़ी दूरी बनाकर कहने लगा वह, ‘‘मैडम, बिना पत्ता लिए शरीर कँपकँपाने लगा...पानी हाथ में लिया तो करंट मारने लगा...ओह, विद्ड्राअल की यह कोल्ड ट्रकी’’...और वह मुँह ढाँपकर सुबकने लगा था।
मैंने जल्दी से दस-दस के तीन नोट उसको पकड़ाए। कई दिन की बढ़ी उसकी दीढ़ी में फिर कुछ आँशू टपके...उसकी एक आँख हँसी, दूसरी रो पड़ी। कँपकँपाते होंठों से दो शब्द पेड़ की सूखी पत्तियों-से झरे, ‘‘थैंक्यू।’’
खुली खिड़की से मैंने बाहर की ओर ताका। पहाड़ी प्रदेश की तरह साँझ के पहले ही साँझ घिर आई थी। बाहर जैसा ही एक सर्वग्रासी अँधेरा अपने भीतर में लिए लौट आई थी।
घर लौटकर मैंने उसे दो पंक्तियों का एक पत्र लिखा था, ‘अपने को डिनाइ करने की बजाय काश तुमने अपने ईश्वरत्व को पहचाना होता तो जीवन के संस्पर्श से इस प्रकार वंचित नहीं रहते।’
और अब उस दास्तान का यह तीसरा हैरतअंगेज पृष्ठ।
बैठे-बैठे जाने कैसी अस्पष्ट एवं उदास अनुभूतियाँ मन के कोने-कोने को अवसाद से भरने लगीं कि मैं फिर फड़फड़ा उठी- क्या खुले शब्दों में ही लिख दिया है...‘धर्मांतरण ?’ पर नहीं, उस पर लिखा था- रिसरेक्शन वर्शिप सर्विस-20 फरवरी, रविवार, सुबह आठ बजे।
दौड़ती बस और धूम मचाते विचारों के झटके। एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी का इस प्रकार रुपांतरण ? मन मानने को तैयार नहीं। यह सचमुच कृतज्ञता है भी तो क्या इस तरह अपनी पहचान...अपनी जड़ को ही बदल देना ? जीवन के जाने कितने अनुत्तरित प्रश्नों में से शायद इस प्रश्न को भी अनुत्तरित ही रहना था।
सुबह की नर्म धूप। चहल-पहल और चटक रंगो में नहाया छोटा-सा खूबसूरत लॉन। ताजा कटी घास। वृत्ताकार में सजाए रंग-विरंगे मौसमी फूलों के छोटे-छोटे गमले एक आँतरिक घेरा बनाते हुए। घेरे के बाहर पचास साठ आमंत्रित अतिथि। घेरे के भीतर एक कतार में कुर्सी पर बैठा विश्वजीत और उसके सात साथी- धर्मांतरण के लिए प्रस्तुत। हवा में लहराता बैनर इमैनुअल मिनिस्टरीज, कलकत्ता। सैमेरिटैंस। दूर खड़ी चार-पाँच एंबुलेंसनुमा सफेद गाड़ियाँ जिनकी बॉडी पर लाल अक्षरों में लिखा हुआ था-यूरेपियन कम्युनिटी। इधर-उधर नजर घुमाई, चार-पाँच अंग्रेज महिलाएँ। वें इसी आयोजन के लिए पिछली रात मैनचेस्टर से यहाँ आई थीं। अपने वंश को आगे तक बढा ले जाने की सफलता में गदगदायमान। मन ही मन मैंने दाद दी उनकी निगहबानी की, वे भारतीय सें बढकर भारतीय दिख रही थीं।
सिल्क की साड़ी, रंगीन चूड़ियाँ बिंदी, कानों में बुंदे। परंपरा और संस्कृति को प्रवहमान रखते हुए धर्मांतरण। की शुरुआत में इलेक्ट्रिक गिटार पर एक प्रार्थना गाई गई। हवा की लहरियों पर तिरते हुए शब्द मुझ तक पहुँचे-टू गॉड बी दि ग्लोरी ग्रेट थिंग्स ही हैज डन...
इसके बाद ईशु की शरण में जाने वाले सभी रिकवरिंग एडिक्ट (सुधरे हुए नशेबाजों) ने एक-एक कर अपना संक्षिप्त आत्मकथ्य पढ़ा।
सबसे पहले आया राकेश वर्मा, जिसे मैंने ध्यान से सुना था और जिसके शब्दों ने मेरी चेतना को झकझोर डाला था। उसने कहना शुरू किया, ‘‘ड्रग ने मेरे जीवन को अँधेरों और पापों से भर डाला था। चोरी से लेकर हत्या तक सारे कुकर्म मैं कर चुका था। मुझसे दुखी होकर पत्नी ने अपना एबॉर्शन करवा डाला...कि इस जाहिल व्यक्ति का गर्भ धारण नहीं करूंगी। मैं आध्यात्मिक रूप से मर चुका था। शैतान मेरी आत्मा में बैठ चुका था। एक बार विद्ड्राअल की छटपटाहट में मैंने अपनी माँ की सोने की चार चूड़ियाँ तक बेच डाली थीं।
उसके बाद मेरे घर के दरवाजे मेरे लिए बंद हो चुके थे। अपनी हालत से परेशान अपनी मृत आत्मा और जर्रा-जर्रा बिखरे शरीर के साथ एक शाम मैं चर्च के बाहर बैठा था कि हठात् मैंने सुना... कोई पादरी बाइबिल का संदेश सुना रहा था- आई गिव माई ब्लड फॉर योर सिंस। आई फॉरगिव ऑल योर सिंस (मैं तुम्हारे सभी पापों को क्षमा करता हूँ)। पहली बार मुझे उन चमत्कृत क्षणों में ईश्वर-बोध हुआ। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे... तो मुझे माफी मिल सकती है ? मेरा भी भविष्य हो सकता है ?...बस, एक बार कोई मेरे पापों को क्षमा कर दे, मेरा विश्वास कर ले। बस, उस दिन से ही...।’’ और उसके आगे भावातिरेक में बोल नहीं पाया... हाथ जोड़कर वह अपनी जगह बैठ गया था।
आज का जागरूक पाठक सर्जनात्मक कथा-साहित्य में वर्ण और नारी आदि के विमर्शों की अनंत बाढ़ की चपेट में हैं और ऐसे ‘हवा महलों’ के संभवतः खिलाफ भी, जो कि उसे ज्ञान के संज्ञान के स्तर पर कहीं शून्य में ले जाकर छोड देते हैं। इसके उलट प्रस्तुत कहानियों में जीवन की कालिमा और लालिमा, रति और यति, दीप्ति और दमन एवं प्रचार और संदेश को उनके सही-सही पदासन पर बैठाकर तोला, खोला और परखा गया है। अभिव्यक्ति के स्तर पर विचारों का कोरा रुखापन तारी न रहे, इसलिए लेखिका ने प्रकृति और मनोभावों की शब्दाकृतियों को भी लुभावने ढंग और दृश्यांकन से इन कहानियों में पिरोया है। धर्मांतरण का विषय हो या कैरियर की सफलता के नाम पर पैसा कमाने की ‘मशीन’ बनाते बच्चों के जीवन की प्रयोजनहीनता ..या फिर स्त्री के नए अवतार में उसकी लक्ष्मी-भाव और उर्वशीय वांछनाओं की दोहरी पौरुषिक लोलुपताएँ-कथाकार की भाषागत जुलाहागीरी एकदम टिच्च मिलती है। इसे इन कहानियों का महायोग भी कहा जा सकता है। सृजन को जो कथाकार अपने कार्यस्थल के रुप में कायांतरित कर देता है, वह अपने शीर्ष की ओर जा रहा सर्जक होता है। विश्वास है कि पाठक को भी यह कृति पढ़कर वैसा ही महसूस होगा। ऐसा अनुभव इसलिए अर्जित हो सका है, क्योंकि ये कहानियाँ जीवन के अभिनंदन पत्र नहीं , बल्कि मानवीय अपमान और सम्मान की श्री श्री 1008 भी हैं।
विश्वजीत ने मुझे लिखा थाः
मैडम इस पत्र के साथ एक छोटा-सा पैंफ्लेटनुमा निमंत्रण कार्ड भी भेज रहा हूँ। जानता हूँ, इसे देखकर आपको दुख होगा... मेरा बपतिस्मा-जी मैडम ! आगामी रविवार, 20 फरवरी को मैं अपना बपतिस्मा करवाने जा रहा हूँ। पवित्र जल में तीन डुबकी और मैं विश्वजीत चक्रवर्ती, एक साइंस ग्रेजुएट, खाँटी वैष्णव परिवार का ब्राह्मण...अपने पूरे होश-हवास के साथ ईसाई बन जाउँगा।
जानता हूँ-आपकी भौंहें चढ़ गई होंगी...मुँह खुला का खुला रह गया होगा...। धीरे से कहा होगा- अविश्वसनीय !
पर यही यथार्थ है। मैं यह ईसाई धर्म इसलिए नहीं स्वीकार कर रहा हूँ कि मैं एकाएक किसी बड़ी रोशनी में आ गया हूँ या ईशु के टेन कमांडमेंट्स में मेरी आस्था एकाएक जाग उठी है या ज्ञान का कोई बोधिसत्व मेरे हाथ लग गया है। मैडम, यह सब मैं कृतज्ञतावश कर रहा हूँ... उन लोगों के प्रति जिन्होंने तब मुझे सहारा दिया था, जब मेरे जीवन के सूर्य को पूरी तरह ग्रहण लग चुका था।
याद आ रहा है...कभी ड्रग के अँधेरे में डूबे मेरे वजूद को देख आपने मुझसे कहा था...जीने के लिए ड्रग के सहारे की आवश्यकता उन्हें पड़ती है जिन्हें जीवन से प्यार नहीं होता। अपने भीतर की लौ को किसी प्रकार जिलाए रखो...देखोगे कि जीवन अपने आप में कितना सुंदर है, कि जीवन का गौरव अभी भी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।
मैडम आप की बातें सुंदर हैं...अति सुंदर...पर वें उन्हीं जिंन्दगियों पर लागू होती हैं जिनकी जमीन में फिर भी कुछ नमी, कुछ रंग बचा रहता है, पर जहाँ रेत ही रेत हो...ऐसे रीते, रेतीले, रंगहीन जीवन की मार खा-खाकर या तो खत्म हो जाते हैं या कर दिए जाते हैं। ताज्जुब है, आप रेंगती, घिसटती जिंदगियों पर लिखने का दावा करती हैं...मानव की त्रासदी, उसके संघर्ष, स्वप्न और मुक्ति की बात करती हैं... फिर भी आपको हैरत हुई- लोहरदगा के उस आदिवासी परिवार से मिलकर जो एक क्रोसीन की टेबलेट के प्रतिदान में ईसाई बन गया था। जीवन की भयावहता और उसका चरम दारूण और क्या होता हैं मैडम ?...ऐसी ही काली परिस्थितियों में अँखुआते हैं धर्मांतरण के बीज !
कभी गई हैं आप झुग्गी झोंपड़ियों और बस्तियों के बीच ? हावड़ा-सियालदह के प्लेटफॉर्मों पर ? फ्लाई ओवर के नीचे बने स्लम के सीलन-भरे अँधेरे तहखानों में ? कभी चलिए मेरे साथ, मैं दिखाऊँगा आपको-रिसती- रेंगती अपाहिज जिंदगियाँ...बुढ़पे को मात करती जवानियाँ...माँ के गर्भ से पैदा होता बुढ़ापा। इन्हीं जगहों पर ढेरों-ढेर ऐसे बच्चे हैं, जिनका बचपना झुलसा हुआ है। जो नशे के, कुटेवों के और मस्तानों की वासनाओं के शिकार हैं। जिन हाथों में किताब होनी चाहिए उन हाथों में भारी-भरकम झाड़ू हैं। मैंने देखा है मैडम...बड़ी-बड़ी भट्ठियों में झुलसते सुकोमल चेहरे... टाट के पर्दों के पीछे नशेबाजों को सामान सर्व करते नन्हे हाथ। ‘माल’ सर्व करते-करते वे स्वयं भी उसका शिकार हो जाते हैं। ईट गारा ढोती कोमल देह। ताज्जुब है मैडम, यह मंदिरो और नदियों का देश है या बाल- श्रमिकों का ?
यदि जीवन, मनुष्य की त्रासदी और उसकी नियति से जरा भी लगाव है आपको, तो आप उन जिन्दगियों की कहानियाँ लिखिए, जिनकी कभी कोई कहानी नहीं बनती। पर इसके लिए आपको इस त्रस्त, पीड़ित और भटकती हुई मानवता के बीच कुछ दिन गुजारने होंगे। सिर्फ ईश्वर में लीन रहने या सिर्फ एक कमजोर एवं दुखी आत्मा की तरह धर्मांतरण पर दुःख करने या चिंता करने से बात नहीं बनती।
हमारा एक प्रोजेक्ट है- चिल्ड्रेन ऐट रिस्क। उस प्रोजेक्ट के अंतर्गत हमने ऐसे ही 250 बीमार, अमानवीय श्रम के शिकार, नशा एवं कुटेव के शिकार 300 बच्चों को फुटपाथों एवं बस्तियों से उठाया है। धीरे-धीरे अब ये बच्चे स्वस्थ हवा में साँस ले रहे हैं। इन्हें घर की आत्मीय उष्णता से परिचित कराने के लिए हमने इनके लिए मिड-होम की भी व्यवस्था की है। इसके अतिरिक्त हार्डकोर ड्रग एडिक्ट के लिए डि-टॉक्सीफिकेशन सेंटर भी है। इसके साथ ही स्पीरिचुएल ट्रेनिंग कोर्स एवं वोकेशनल ट्रेनिंग कोर्स भी लिए जा रहे हैं, जिससे मन की ताकत पाकर ये फिर नशे की ओर न मुड़ें (मेरा उद्धार इसी डि-टॉक्सीफिकेशन सेंटर में हुआ था)।
मैडम, आप इस प्रोजेक्ट के साथ विशेषकर ‘चिल्ड्रेन ऐट रिस्क’ के साथ अवश्य जुड़ें, तब समझेंगी आप कि जीवन धर्म से कितना भारी पड़ता है। जिस दिन जीवन के तलहट पर खड़ी लुंज-पुंज जिंदगियों को जीवन का गरल पीते अपनी आँखों से देख लेंगीं, शर्तिया धर्म का सोमरस आपको बहका नहीं पाएगा।
एक और अनुरोध... इसी पत्र के साथ एक लिफाफा अपने बड़े भाई के नाम भेज रहा हूँ...कृपया यह उन तक पहुँचा दें।
दूसरी दोपहर।
लिफाफे के साथ मैं निकल पड़ी उसके बड़े भाई के यहाँ। रास्ता आगे बढ़ रहा था, पर मैं पीछे जा रही थी। साथ में उँगली पकड़े-पकड़े कुछ बीते सत्य- मेरे सूने मन को ठकठकाते।
बादलों से घिरी वह एक उदास शाम थी, जब पहली दफा मैं उसके घर के लिए निकली थी। अँधेरों से घिरी, सँकरी-सी, खटर-पटर वाली गली के अंतिम नुक्कड़ पर था उसका मकान। खोजने में थोड़ा वक्त लगा। पाड़े के एक चाय वाले के यहाँ कई बेरोजगार युवा चाय की चुस्कियों के बीच करिश्मा कपूर की बिल्लौरी आँखों और उसके लेटेस्ट प्रेम-प्रसंग पर विमर्श कर रहे थे। उन्हीं में से किसी एक से पूछा मैंने- ‘‘विश्वजीत कोथाय थाके, बोलते पारो ?’’
(विश्वजीत कहाँ रहता है, बता सकते हो ? ‘‘कौन...? विशु दा...एक लड़के ने कहा...और तभी उसकी आवाज को काटती दूसरी तेज आवाज उभरी- ‘‘ सेई पत्ताखोर ?’’ (बंगाल में हेरोइन या ब्राउन शुगर की एक डोज को एक पत्ता और उसके सेवन करने वाले को पत्ताखोर कहते हैं) और उसने भद्दी हँसी के साथ उँगली दिखा दी।
‘पत्ताखोर’ शब्द खंजर की तरह सीने में गड़ा। तो अब यही पहचान रह गई है उसकी ? दृश्य सत्य ही सत्य है, नेपथ्य के यथार्थ को जानने में किसी की दिलचस्पी नहीं ? बरहाल...।
पुराने जमाने की जंजीर की साँकल वाला एकमंजिला उसका मकान। भुतहा सा। कंडी खड़खड़ाई तो सामने उसकी माँ। ठठरी-सी देह। झुकी कमर। जैसे झुर्रियों का जंजाल और थकान भरी मोतियाबिन्दी आँखे।
मुझे देखते ही सिकुड़ गईं वे आँखें।
‘‘ विश्वजीत है ? उन्हीं से मिलना है।
चेहरे की खाल काँपी उनकी। खुले-अधखुले होंठ कँपकँपाए। उँगली दिखा दी उन्होंने।
इधर-उधर नजर घुमाई...एक असीम और कालातीत सन्नाटा पसरा हुआ। जिंदगी की ऊब और अकेलेपन की ठिठुरन से जकड़ी वह आत्मा कुछ कदम मेरे साथ चली, फिर जाने क्या सोच बुदबुदाती मुड़ गई।
सामने एक ही कमरा। उढ़काया हुआ। हलकी- सी दस्तक, एक बार...दो ....तीन बार...कोई सुनवाई नहीं। आखिर...गली हुई लकड़ी वाले उस दरवाजे की फाँक से मुंड़ी अंदर घुसाई-उखड़ी पपड़ियों वाली सीलन- भरी दीवारें चहूँ ओर। सब कुछ रहस्यमय-सा। कहीं गलत कमरा तो नहीं दिखा दिया उस वृद्धा ने-वृद्धावस्था में मस्तिष्क यूँ भी आउट ऑफ ऑर्डर हो जाता है- सोचती हुई फिर वापस मुड़ी, पर आसपास सब वीरान। न कोई इंसान, न इंसानी आवाज। थोड़ी हिम्मत बटोरी और आखिर में दो कदम अंदर घुसी कि एक जबर्दस्त दृश्याघात। ठिठके-ठहरे उस परिवेश में बहता हुआ समय जैसे एक कोने में ठहर गया था। सारी खिड़कियाँ बंद। एक कोने में सिर पर चादर डाले, सिर झुकाए वह बैठा था। अडोल। निस्पंद। बाएँ हाथ में, पन्नी, दाँए हाथ में जलती मोमबत्ती- उस पन्नी को नीचे से हलका-हलका ताप देती हुई। पन्नी पर रखा चूर्ण घी की तरह पिघला... फिर धुँआ। उसी धुएँ को स्ट्रा की सहायता से समाधिस्थ-सा टान रहा था वह, जैसे जीवन की साँसें टान रहा हो।
भय, उत्तेजना, रोमांच और विस्मय की मिली-जुली अनुभूति से मैं जैसे काठ हो गई थी। एक मिनट के लिए वापस लौटना चाहा तो कदम उसके गुरुत्वाकर्षण जोन की ओर चुम्बक की तरह खिंचने लगे। मेरी सारी इंद्रियाँ अकस्मात जाग गई थीं। कनपटी तड़कने लगी। यह तो सुना था विशु ड्रग के अँधेरे में घिर गया है, पर इस प्रकार ली जाती है हेरोइन ? घर पर ही ? माँ की उपस्थिति में ही ? मैं तो सोचती थी कि होम्योपैथ की पुड़िया की तरह फाँक लिया जाता होगा...पर इस प्रकार पन्नी, मोमबत्ती, चूर्ण और स्ट्रा का यह कॉम्बीनेशन ? यह तामझाम ? बाप रे !
वे क्षण जैसे शाश्वत क्षण बन गए थे। सब कुछ थिर था उन क्षणों में...हवा का दबाव...पृथ्वी का घूमना...परिंदों का उड़ना। मेरी उपस्थिति से बेखबर उन क्षणों में उसकी सारी चेतना उस धुँए पर केंद्रित थी। धीरे-धीरे वह धुँआ भी शेष हुआ। उसने सिर उठाया। एक तरफ से अधजली और कड़ी पड़ी उस पन्नी को उसने जमीन पर रखा। मोमबत्ती को यूँ ही जलता छोड़ नशे की तंद्रिल खुमारी में बहते हुए घुटनों पर सिर रख आँखें मूँद लीं और खुद को हवाले कर दिया किसी अनाम हाई पॉवर के हाथों।
‘‘अरे...अरे ....यह क्या ? मोमबत्ती से चादर में आग लग सकती है...’’मैं चीख पड़ी। चेतन-अचेतन के संधि-बिंदु पर खड़ा ढहता-बहता वह थोड़ा चौंका, ‘‘कौन ?’’ नशे की खुमारी थोड़ी झड़ी। अधमुँदी आँखों के कपाट एक बारगी खुल गए। रक्ताभ आँखों में पहचान की झिलमिल उभरी। खुमारी की जगह अब वहाँ सकपकाहट और आत्मग्लानि के मिले-जुले भाव थे। उसने हाथ जोड़े और हलके से हँसा...एक उदास और दरकती हँसी- ‘‘तो आपने भी मुझे आज देख ही लिया अपने वास्तविक स्वरूप में ! अच्छा ही किया। जीवन का यह छुपा आख्यान भी खुला...।’’
‘नहीं विशु, मैंने अच्छा नहीं किया आज यहाँ आकर। ओफ ! कितना यातनापूर्ण है एक सत्य पर आरोहण करना...’ मैंने उसे कहना चाहा पर मूक रही।
क्षणांश के लिए मन मीलो पीछे दौड़ गया। 1970-72 का वह उफनता नक्सलवादी आंदोलन। किसी जोशीले समुद्र की तरह ठाठें मारता...हुंकारता विशु...। हार्डकोर नक्सलवादी...पुलिस का प्राइज कैच। शिकारी कुत्तों की तरह जिसके पीछे पड़ गई थी पुलिस-पुलिस से बचते-बचाते एक रात हमारे यहाँ ठहरा था वह। आँखों में झिलमिलाता एक स्वप्न- आम आदमी की तरह मुक्ति का। मन में दृढ़ संकल्प। हृदय में सिंह-साहस।- ‘मैडम, इस उठते ज्वार को शायद ही कोई रोक पाएगा। सदियों से दबा-पिसा-कुचला, सत्तू खाने वाला यह सर्वहारा वर्ग अब हुंकार भरने लगा है। उन्हें एक आदमी की गरिमा अब देनी ही होगी। आम आदमी की मुक्ति का हमारा यह क्रांति-स्वप्न...
मैडम, यही मेरा जीवन-सत्य है...इसी के लिए अपने को बूँद-बूँद निःशेषकर देना चाहता हूँ।’
बाद में सुना, वह सीमा के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया था। जेल के भी भीतर बनी जेल में रखा गया था उसे...निपट अकेला और थर्ड डिग्री टॉर्चर...फिर भी पुलिस कुछ भी नहीं उगलवा पाई थी उससे। करीब पाँच साल बाद 1977 में जब जनता पार्टी ने सत्ता में आने के बाद सभी नक्सलवादियों को छोड़ दिया था...तभी छूट पाया था वह।
ताज्जुब ! काँटो के बीच खिला फूल सेज पर आते ही मुरझा गया था। अमानवीय पुलिस यातनाओं और प्राणों को सुखा डालने वाले सन्नाटे और दहशत-भरी परिस्थितियों में भी जिसका मानसिक संतुलन नहीं गड़बड़ाया, जेल से बाहर आते ही गड़बड़ा गया था वह। बदली हुई फिजा, हवा और बदला हुआ मौसम उसे तोड़ने लगे थे। एक स्वप्न की ताजा मृत्यु से भी ज्यादा जानलेवा यह अहसास था कि वह फिजा, वह हवा ही बदल गई थी, जहाँ स्वप्नों की जमीन बनती थी, जहाँ क्रांति के फूल फलते-फूलते थे, जहाँ बसकर आँखें स्वप्न देखना सीखती थीं। आधे से अधिक जाँबाज कॉमरेड मारे जा चुके थे।
जो जीवित रह गए थे उनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ी जा चुकी थी। और जो आने वाली पीढ़ी थी उसका क्रांति के नाम से ही मोहभंग हो चुका था। वे फिर अपने सूखे अध्ययन की दुनिया में लौट चुके थे।...पर विश्वजीत ? वह ऐसा नहीं कर सका। मानव मुक्ति के महान् स्वप्नों के एवरेस्टपर चढ़ जाने के बाद यह लूलों की सी वापसी ? उसका संतुलन इस कदर गड़बड़ाया किसी प्रति-सृष्टि को रचने का स्वप्न लिए वह चला गया-हेरोइन के अँधेरों के प्रति-संसार में...एक नई फैंटेसी की दुनिया में...जहाँ वह वह था जो वह नहीं था। और इस नामुमकिन- लगते सत्य का ...एक सीमांत से दूसरे सीमांत पर लुढ़कते जीवन का यह चश्मदीद गवाह भी मुझे ही बनना था।
‘‘कहाँ खो गई मैडम ?’’ अब वह खड़ा हो गया था। दीवार पर ठुकी कील पर उसने चद्दर टाँग दी थी। कोने पर रखे स्टूल को खींचकर मुझे उस पर बैठने का आग्रह करने लगा था।
‘‘तुम्हे नशेबाज के रूप में देखूँगी, कभी सोचा भी न था।...’’बोलते-बोलते कंठ अवरूद्ध हो गया था मेरा...एक संभावनापूर्ण जीवन का इस प्रकार असमय अवसान !
वह हँसा, एक दरकती हँसी। उदासी का अक्स भी उभरा। ‘‘मैडम, आप मेरे एडिक्शन पर दुखी हैं, पर मुझे तो इस दुनिया में सभी एडिक्ट लगते है। किसी को सत्ता का एडिक्शन ! है, किसी को धर्म का तो किसी को श्रेष्ठता का। देखा नहीं आपने, इंदिरा मैडम का सत्ता-एडिक्शन ! सह नहीं पाईं विद्ड्राअल और लगा दी एमरजेंसी।’’
‘‘ विद्ड्राअल ! यह क्या ?’’
मैडम, धीरे-धीरे आप नशे की इस दुनिया की सारी शब्दावली समझ जाएँगी। विद्ड्राअल का मतलब है, जब नशेबा़ज की डोज का समय हो जाए और उसे डोज नहीं मिले ....ओफ ! बड़ा भयंकर होता है हेरोइन का विद्ड्राअल...बदन ऐंठने लगता है। जोड़-जोड़ चटकने लगता है, जुबान लॉक हो जाती है...ओफ ! मैडम, एक बार भुगती थी मैंने भी विदड्राअल की यातना... अरे, पैडलर धोखा दे गया... नकली माल थमा गया। जब नीचे से ताप दिया तो ‘माल’ पिघला ही नहीं...धूपकाठी का पाउडर था। मैडम, विद्ड्राअल में नशेबाज कुछ भी कर सकता है- चोरी, डकैती, खून तक। वह बच्चे के दूध का डिब्बा तक बेच सकता है, बीवी का जेवर बेच सकता है। साक्षात श्रीदेवी भी सामने आ जाए ना तो वह कहेगा... नो, पहले पत्ता।’’
कुछ खामोश पल... थोड़ा रुककर वह कहने लगा, ‘‘लेकिन मैं कुछ दूसरी ही बात कर रहा था... हाँ, याद आया। हाँ, तो मैडम, मैं कह रहा था कि सभ्यता और इतिहास की अधिकांश लड़ाइयों के पीछे यही नशा रहा है- संसार की नंबर वन ताकत बनने का नशा। मैडम, एक नशेबाज के नशे का फिर भी डि-टॉक्सीफिकेशन (नशा-मुक्ति के लिए शारीरिक स्तर पर दी जानेवाली चिकित्सा) करवाया जा सकता है...पर सत्ता, धर्म और श्रेष्ठता- दंभ का नशा जो इनकी आत्मा से चिपका होता है, उसका तो कोई डि-टॉक्सीफिकेशन भी नहीं। ’’
उससे उलझना फिजूल था। इस कारण संवाद की आरोही उठान को व्यक्तिगत ढलान पर लाती हुई मैं फिर बोल पड़ी, ‘‘तो फिर तुम क्यों नहीं करवा लेते अपना डि-टॉक्सीफिकेशन... मुझे बताओ, क्या करना होगा ? मैं करवाउँगी तुम्हरा ट्रीटमेंट !’’
अनजाने ही मैंने उसकी दुखती रग पर उँगली धर दी थी। वह चुप हो गया था। मैंने फिर झंझोड़ा उसे, ‘‘बताओ, किस नर्सिग होम में होता है डी-टॉक्सीफिकेशन ? ’’
वह जैसे अपने भीतर से बाहर आया। वेदना का समुद्र उसकी आँखों में लहराया। आर्द्र आँखों से मुझे देखते हुए वह बुदबुदाया, ‘‘ नहीं मैडम... मुझे ठीक नहीं होना।’’ पानी-भरे बादलों-सी भारी-भारी आवाज। जैसे साक्षात् वेदना।
‘‘ क्या ? क्या कह रहे हो तुम ? क्यों ठीक नहीं होना चाहते तुम ?’’
‘‘ मैडम, यदि मैं ठीक हो गया तो यह व्यर्थ- सा लगता खाली जीवन मुझसे जिया नहीं जाएगा...वे स्वप्न...वे संकल्प...दुनिया को फिर से बनाने के वे महान विचार। मैडम मान लीजिए कि मैं ठीक हो गया तो क्या वह समय...वह महान समय मुझे मिल जाएगा...जब देश का सर्वश्रेष्ठ युवा वर्ग सत्य और न्याय के लिए, आदमी की गरिमा की खातिर पुलिस की गोलियों के सामने सीना तान कर खड़ा हो गया था। मैडम, आजाद भारत में भगत सिंह के बाद वह पहली पीढ़ी थी, जिसने अँधेरों की दुनिया को रोशन करने के लिए कफन सिर से बाँधे थे... मैडम, 1969-70 का वह महान इंकलाबी समय, जब भारत ही नहीं यूरोप, अमेरिका और फ्रांस के छात्र एवं युवा वर्ग ने भी अन्याय, राज्य-व्यवस्था एवं तानाशाही राज्यतन्त्र के विरूद्ध आवाज उठाई थी।
मैडम, आज तो लगता है, युवा वर्ग विद्रोह की आवाज ही भूल गया है, विरोध की कोई सुगबुगाहट तक नहीं। उसके स्वप्न...जीने के अर्थ....आयाम सब कुछ सिकुड़ गए हैं। ओह, वह वातावरण...वह महान् और पवित्र समय ... वह युवा वर्ग...सब शेष हो गया मैडम...कुछ नहीं बचा...कुछ भी नहीं। सब उम्मीदें, आशाएँ बाँझ हो गई हैं। ’’- उसकी आँखों में धुआँ था, धुआँ ही धुआँ।
घुटनों के बीच मुँह छुपा लिया था उसने। धीरे-धीरे सुबक रहा था। उसकी देह काँप रही थी। उस उदास शाम, संसार के सबसे बड़े दुख को जन्म लेते देखा मैंने और अपने मरे हुए मन के साथ लौट आई।
उसके साढ़े तीन महीने बाद ही फिर हुई दूसरी मुलाकात। घर से फील्ड वर्क के लिए निकल रही थी कि तभी फोन की घंटी बजी। एकदम गिरती–गिरती लड़खड़ाती डरी हुई आवाज, ‘‘मैडम विदड्राअल में हूँ... थोड़े पैसे चाहिए...पत्ता खरीदना है... मैडम प्लीज, नहीं लिया तो विद्ड्राअल में ही मर जाऊँगा।’’
फोन ने नैतिक अंतर्द्वंद्व और दुविधा में डाल दिया। क्या करूँ ? दूँ...न दूँ ? यदि सचमुच ही मर गया तो ? सोच रही थी कि वह फिर गिड़गिड़ाया, ‘‘मैडम कुछ बोलिए...मेरी कुछ किताबें हैं ... उन्हें ले लीजिए...आप किताबें संग्रह करती हैं।’’ लगा, जैसे उसकी आत्मा का सत्व पूरी तरह निचुड़ गया है। लगा, वह नहीं मेरी इमारत ही ढह रही है। आँत में जैसे गोला अटक गया था। किसी प्रकार थूक निगलते हुए कहा, ‘‘ठीक है... आ रही हूँ। अभी तुरंत।’’
बस पकड़कर सीधी उसके यहाँ पहुँची तो फिर अवाक्। अलीबाबा की गुफा के खुले दरवाजों की तरह उस घर के सारे कपाट खुले थे... बाहर की साँकल से लेकर निजी कमरे के कपाट तक। डर और आशंका के साथ लगभग उड़ती हुई उसके कमरे तक पहुँची तो मन पर कफन ही पड़ गया था। कमरे के कोने में किसी डरे हुए जानवर की तरह, भयभीत कछुए की तरह अपने सारे अंगों को अपने भीतर समेटे वह बैठा था। चेहरे पर जंगली घास की तरह बढ़ी दाढ़ी देखते ही उसकी बुझी आँखें चिनगारी-सी दहकीं। दूसरे ही क्षण वह चिनगारी बुझ गई और आँखों के कोटर में अजीब-सी दीनता और याचना भर गई, ‘‘मैडम बीस रुपय दे दीजिए... बस, बीस रुपए। आपको लौटा दूँगा।’’
उसके दाँत किटकिटाने लगे थे। मुँह से आती दुर्गंध से माथा भन्ना रहा था मेरा। हठात् मुँह से निकल पड़ा, ‘‘तुमने अभी तक ब्रश नहीं किया ?...’’
पर बोलने के साथ ही मैं सहम गई थी। वह ताड़नीय नहीं, दयनीय था। उसका चेहरा काला पड़ गया था। कीचड़ और नींद-भरी आँखें और झुक गई थीं। भय, आत्मग्लानि और अपमान की लहरों ने जैसे उसे हीनता के सबसे आखिरी पायदान पर ला पटका था। गर्दन की जकड़न को दूर करने के लिए उसने दाएँ-बाएँ गर्दन घुमाई, उँगलियाँ चटकाईं, अपने सूखे पपड़ाए होंठों पर जीभ फिराई और थोड़ी दूरी बनाकर कहने लगा वह, ‘‘मैडम, बिना पत्ता लिए शरीर कँपकँपाने लगा...पानी हाथ में लिया तो करंट मारने लगा...ओह, विद्ड्राअल की यह कोल्ड ट्रकी’’...और वह मुँह ढाँपकर सुबकने लगा था।
मैंने जल्दी से दस-दस के तीन नोट उसको पकड़ाए। कई दिन की बढ़ी उसकी दीढ़ी में फिर कुछ आँशू टपके...उसकी एक आँख हँसी, दूसरी रो पड़ी। कँपकँपाते होंठों से दो शब्द पेड़ की सूखी पत्तियों-से झरे, ‘‘थैंक्यू।’’
खुली खिड़की से मैंने बाहर की ओर ताका। पहाड़ी प्रदेश की तरह साँझ के पहले ही साँझ घिर आई थी। बाहर जैसा ही एक सर्वग्रासी अँधेरा अपने भीतर में लिए लौट आई थी।
घर लौटकर मैंने उसे दो पंक्तियों का एक पत्र लिखा था, ‘अपने को डिनाइ करने की बजाय काश तुमने अपने ईश्वरत्व को पहचाना होता तो जीवन के संस्पर्श से इस प्रकार वंचित नहीं रहते।’
और अब उस दास्तान का यह तीसरा हैरतअंगेज पृष्ठ।
बैठे-बैठे जाने कैसी अस्पष्ट एवं उदास अनुभूतियाँ मन के कोने-कोने को अवसाद से भरने लगीं कि मैं फिर फड़फड़ा उठी- क्या खुले शब्दों में ही लिख दिया है...‘धर्मांतरण ?’ पर नहीं, उस पर लिखा था- रिसरेक्शन वर्शिप सर्विस-20 फरवरी, रविवार, सुबह आठ बजे।
दौड़ती बस और धूम मचाते विचारों के झटके। एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी का इस प्रकार रुपांतरण ? मन मानने को तैयार नहीं। यह सचमुच कृतज्ञता है भी तो क्या इस तरह अपनी पहचान...अपनी जड़ को ही बदल देना ? जीवन के जाने कितने अनुत्तरित प्रश्नों में से शायद इस प्रश्न को भी अनुत्तरित ही रहना था।
सुबह की नर्म धूप। चहल-पहल और चटक रंगो में नहाया छोटा-सा खूबसूरत लॉन। ताजा कटी घास। वृत्ताकार में सजाए रंग-विरंगे मौसमी फूलों के छोटे-छोटे गमले एक आँतरिक घेरा बनाते हुए। घेरे के बाहर पचास साठ आमंत्रित अतिथि। घेरे के भीतर एक कतार में कुर्सी पर बैठा विश्वजीत और उसके सात साथी- धर्मांतरण के लिए प्रस्तुत। हवा में लहराता बैनर इमैनुअल मिनिस्टरीज, कलकत्ता। सैमेरिटैंस। दूर खड़ी चार-पाँच एंबुलेंसनुमा सफेद गाड़ियाँ जिनकी बॉडी पर लाल अक्षरों में लिखा हुआ था-यूरेपियन कम्युनिटी। इधर-उधर नजर घुमाई, चार-पाँच अंग्रेज महिलाएँ। वें इसी आयोजन के लिए पिछली रात मैनचेस्टर से यहाँ आई थीं। अपने वंश को आगे तक बढा ले जाने की सफलता में गदगदायमान। मन ही मन मैंने दाद दी उनकी निगहबानी की, वे भारतीय सें बढकर भारतीय दिख रही थीं।
सिल्क की साड़ी, रंगीन चूड़ियाँ बिंदी, कानों में बुंदे। परंपरा और संस्कृति को प्रवहमान रखते हुए धर्मांतरण। की शुरुआत में इलेक्ट्रिक गिटार पर एक प्रार्थना गाई गई। हवा की लहरियों पर तिरते हुए शब्द मुझ तक पहुँचे-टू गॉड बी दि ग्लोरी ग्रेट थिंग्स ही हैज डन...
इसके बाद ईशु की शरण में जाने वाले सभी रिकवरिंग एडिक्ट (सुधरे हुए नशेबाजों) ने एक-एक कर अपना संक्षिप्त आत्मकथ्य पढ़ा।
सबसे पहले आया राकेश वर्मा, जिसे मैंने ध्यान से सुना था और जिसके शब्दों ने मेरी चेतना को झकझोर डाला था। उसने कहना शुरू किया, ‘‘ड्रग ने मेरे जीवन को अँधेरों और पापों से भर डाला था। चोरी से लेकर हत्या तक सारे कुकर्म मैं कर चुका था। मुझसे दुखी होकर पत्नी ने अपना एबॉर्शन करवा डाला...कि इस जाहिल व्यक्ति का गर्भ धारण नहीं करूंगी। मैं आध्यात्मिक रूप से मर चुका था। शैतान मेरी आत्मा में बैठ चुका था। एक बार विद्ड्राअल की छटपटाहट में मैंने अपनी माँ की सोने की चार चूड़ियाँ तक बेच डाली थीं।
उसके बाद मेरे घर के दरवाजे मेरे लिए बंद हो चुके थे। अपनी हालत से परेशान अपनी मृत आत्मा और जर्रा-जर्रा बिखरे शरीर के साथ एक शाम मैं चर्च के बाहर बैठा था कि हठात् मैंने सुना... कोई पादरी बाइबिल का संदेश सुना रहा था- आई गिव माई ब्लड फॉर योर सिंस। आई फॉरगिव ऑल योर सिंस (मैं तुम्हारे सभी पापों को क्षमा करता हूँ)। पहली बार मुझे उन चमत्कृत क्षणों में ईश्वर-बोध हुआ। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे... तो मुझे माफी मिल सकती है ? मेरा भी भविष्य हो सकता है ?...बस, एक बार कोई मेरे पापों को क्षमा कर दे, मेरा विश्वास कर ले। बस, उस दिन से ही...।’’ और उसके आगे भावातिरेक में बोल नहीं पाया... हाथ जोड़कर वह अपनी जगह बैठ गया था।
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